Tanhai by Nidhi Narwal
हर पल मेरी तन्हाई ये काटती है मुझको…
कई हिस्सों में कम्बख्त ये बांटती है मुझको…
एक शोर सुनाई देता है, जो सुन्न है…
तन्हाई किसी गीत की एक अधूरी धुन है…
मैं हर वक़्त घिरी रहती हूँ,
तमाम लोगो की तमाम यादों से…
तमाम यादें जिनमे मैं नहीं हूँ…
मैं इस कदर अकेली हूँ…
मैं लोगो के पैर की धूल की तरह पीछे छोड़ी गयी हूँ…
मैं टुकड़ों में बँटकर भी बार बार तोड़ी गयी हूँ…
ये दुनिया कितनी बड़ी है…
इतनी बड़ी है कि इसमें खो जाना तो आम बात है…
ये दुनिया इतनी बड़ी है कि इस दुनिया में किसी के भी पास,
तुम्हे छोड़कर चले जाने को काफी से बहुत ज्यादा जगह है…
इस बड़ी सी दुनिया में मेरा एक कोना है,
ये जितना खाली है उतना ही भरा है अंधेरो से…
मेरे अपनों ने बक्शे है ये मुझे, नहीं मिले है गैरों से…
मेरे इर्द गिर्द पहरा है, मेरे बीते कल का…
जो मेरे आज को अंदर आने ही नहीं देता…
मैं कहीं पिछले दिनों में बैठी हूँ बंद होकर…
और सब आगे निकल गए है मुझे अकेला छोड़कर…
बहुत सहा है दिल ने, पर मेरे दिल में होंसले बहुत है…
मैं दिल को दिलासे दूँ भी तो मगर कैसे…
इसके मेरे बीच में अब फांसले बहुत है…
मैं उस जगह पे बैठी हूँ जहाँ तक मैं खुद भी कभी जा नहीं पाती…
ये तन्हाई इतनी गहरी है कि मैं खुद को भी खुद से मिला नहीं पाती…
ये तन्हाई जैसे खाई, ये तन्हाई जैसे कोई खाई हो…
जिसमे कूद गयी है आवाज मेरी,
तो अब जब बोलती हूँ तो लगता है कि बड़बड़ा रही हूँ…
जो मेरी बात तक सुनने को मौजूद तक नहीं है…
मैं उसे सब समझा रही हूँ, समझे….
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