Main Qaidi Number 786 – Veer Zara Poem by Shah Rukh Khan
Main Qaidi Number 786 Jail Ki Salakhon Se Bahar
Dekhta Hoon…
Din Mahine Saalon Ko Yug Me Badalte Dekhta Hoon…
मैं कैदी नंबर 786 जेल की सलाखों से बाहर देखता हूँ…
दिन महीने सालों को युग में बदलते देखता हूँ…
इस मिट्टी से मेरे बाऊजी के खेतों की खुशबू आती है…
ये धूप मेरी माती की ठंडी छास याद दिलाती है…
ये बारिश मेरे सावन के झूलो को संग संग लाती है…
ये सर्दी मेरी लोहड़ी की आग सेंक कर जाती है…
वो कहते है ये मेरा देश नहीं,
फिर क्यों मेरे देश जैसा लगता है?
वो कहता है मैं उस जैसा नहीं,
फिर क्यों मुझ जैसा वो लगता है…
मैं कैदी नंबर 786 जेल की सलाखों से बाहर देखता हूँ…
सपनों के गाँव से उतरी एक नन्ही परी को देखता हूँ….
कहती है खुद को सामिया और मुझ को वीर बुलाती है…
है बिलकुल बेगानी पर अपनों सी ज़िद वो करती है…
उसकी सच्ची बातों से फिर जीने को मन करता है…
उसके कसमों वादों से कुछ करने को मन करता है…
वो कहते है कि वो कोई नहीं तेरी,
फिर क्यों मेरे लिए दुनिया से वो लड़ती है…
वो कहते है कि मैं उस जैसा नहीं,
फिर क्यों मुझ जैसी वो लगती है…
मैं कैदी नंबर 786 जेल की सलाखों से बाहर देखता हूँ…
मेरे गाँव के रंगो में लिपटी एक नयी ज़ारा को देखता हूँ…
मेरे ख़्वाबों को पूरा करते वो, खुद के ख़्वाबों को भूल चुकी है वो…
मेरे लोगों की सेवा करते, अपने लोगों को छोड़ चुकी है वो…
उसका दामन अब खुशियों से भरने को जी करता है…
उसके लिए एक और ज़िन्दगी जीने को जी करता है…
वो कहते है कि मैं, मेरा देश उसका नहीं,
फिर क्यों मेरे घर वो रहती है…
वो कहते है कि मैं उस जैसा नहीं,
फिर क्यों मुझ जैसी वो लगती है…
मैं कैदी नंबर 786 जेल की सलाखों से बाहर देखता हूँ…
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