Aakhir Bahu Bhi Beti Hoti Hai by Monika Singh
बहुत मुश्किल होता है अपनी पहचान मिटा एक दूजे के रंग में रंग जाना…
हर रोज वही सबकुछ सहना, हर रोज फिर दिल को समझाना…
नहीं करनी मुझे शादी, नहीं होना मुझे पराई है…
कैसे मैं तुमसे दूर रहूंगी माँ, जब सोच आँख भर आई है…
सुनकर बेटी की बात माँ धीरे से मुस्काती है…
पास बैठा बुला प्यार से, उसको कुछ समझाती है…
ये रीत पुरानी है बिटियां, जिसे हम सबको निभाना पड़ता है…
आज नहीं तो कल बेटी को, अपने घर जाना ही पड़ता है…
ये सिर्फ तुम्हारी नहीं यहाँ हम सब की यही कहानी है….
जिसे बड़ा किया अरमानो से वो बेटी एक दिन बियाहनी है…
अपनी क्षमता से जयादा हम वर तुम्हारा ढूंढेगे…
कह रही हो जिन्हे पराया हमसे ज्यादा खुश रखेंगे…
इस घर से जितना स्नेह मिला, उस घर को भी उतना देना…
कोई गुस्से में कुछ कह भी दे, तो तुम दिल पर मत लेना…
जो आभूषण जहाँ के लिए बना हो, उसी जगह पर सजता है…
और नए लोगो के बीच जगह बनाने में, बिटियां थोड़ा वक़्त तो लगता है…
डोली में कर रहे विदा, अब बस अर्थी में वापस आना…
कभी ह्रदय आहत भी हो, तो भी तुम खुद ही खुद को समझाना…
धीरे धीरे तुम एक दिन उस घर के रंग में रंग जाओगी…
इस घर के लिए पराई और उस घर का हिस्सा बन जाओगी…
सारी बातों की गाँठ बाँध माँ, मैं संग अपने ले आयी थी…
पर ना जाने क्यों इस घर में भी और उस घर में भी, मैं ही परायी थी…
हर काम मैं करना चाहती हूँ जो मुझे नहीं भी आता है…
पर थोड़ी भी गलती हो जाना जैसे यहाँ गुनाह हो जाता है…
क्या यही सिखाया माँ ने तुम्हारी, हर रोज मुझसे सब कहते है…
सब छोड़ आयी जिनकी खातिर, वो भी अक्सर चुप रहते है…
सुबह सवेरे जल्दी उठकर, हर काम मैं अपना निपटाती हूँ….
कोशिश कर के हार गयी माँ, पर मन जीत ना पाती हूँ…
अपने सारे अरमानो की फिर एक चादर ओढ़ सो जाती हूँ…
समझाया था जैसा तुमने, वैसा तो कुछ भी ना पाती हूँ…
हर रोज आँख नम होती है, हर रोज ह्रदय भर आता है…
बहु भी बेटी होती है कोई क्यों समझ नहीं पाता है…
कहने को हर रिश्ता अपना, पर अपनेपन से कोसो दूरी है…
ये कैसी रीत है दुनिया की, माँ कैसी मेरी मजबूरी है…
ना जाने कब ये घर मुझे पूरे मन से अपनाएगा…
जो प्यार मिला माँ पापा से क्या यहाँ कभी मिल पायेगा…
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