Ab Mehboob Ko Bhulana Hoga by Zard Sitara

Ab Mehboob Ko Bhulana Hoga Zard Sitara


Ab Mehboob Ko Bhulana Hoga by Zard Sitara

 

मेरे इलाही दौलत, शौहरत, रुतबा, शबाब,

मेरी हथेली की लकीरो से हर गुलिस्तां ले लेना…

पर जो गर अता करो फिर से एक जिंदगी,

मुझे यही मिट्टी, यही तिरंगा, यही हिंदुस्तां देना…

 

कोई जो मकां पूछे, तो दिल्ली, बिहार या फलां कहना…

मगर जो घर पूछे कोई तो, हो मगरूर हिंदोस्तां कहना…

 

क्या कहा दिल्ली सल्तनत हो, बेसुध, बेखबर सो जाओगी,

इंकलाब हुँ, तेज धमाको से बेहरे यह शहर जगाता रहुंगा मै…

आंधियो, आखिर कब तक बिखेरोगी बुझाकर रोशनी,

रोशन मशाल हुँ,आग जब तलक रहेगी, इन चिरागो को जलाता रहुंगा मै…

 

रुह सौंप देते है, नियते मेहबूब पाक गर जो हो…

मेरी जां इशक जिस्मानी हो, हम टिका नही करते…

मोहतरमा जरा ध्यान से, ये नस्ल मगरुर शायरो की है,

हम मोहब्बत में बुलाये जाते है, बाजार में बिका नही करते…

 

नाकामयाबी कई मेरे हिस्से, दामन तमगे कम है…

मेरी जां इन मंजिलो के नही, रास्तो के हम है…

 

तन्हाई इशक हर कलम की कहानी है,

पर जो उजाडे में जैसे सजर लिखती है…

मुमकीन जहर लिखते होंगे कई शायर,

मेहबूब कोसर, मगर कहर लिखती है…

 

अब मेहबूब को भुलाना होगा…

मतलब निगाहो से गिराना होगा…

उनका वायदा है कब्र पे आने का,

माने मर कर उन्हे बुलाना होगा…

 

कुबुल तेरी मै सेहर करु, मेरी शामो को तुम पी जाना…

मै रंजो गम तेरे रख लुंगा, मेरी खुशियो को तुम ले जाना…

जब नैन तुम्हारे रिस्ते हो, जब गैरो से हर रिशते हो…

नाजुक तेरे इन कंधो पर, जब उम्मीद के भारी बस्ते हो…

जब मुशकिल सारे रस्ते हो, और ख्वाव तुम्हारे सस्ते हो…

जब जेब तुम्हारि खाली हो, और मेहगी सारी किस्ते हो…

जब तेरे इश्क के पन्नो का, वो माशूक बडा ही संगदिल हो…

वो जान जिसे सौंपी तुमने, वो रक्षक ही जब बुझदिल हो…

जब हुजुम खडी कंधो पे हो, पर रण में ना कोई शामिल हो…

जब भरी दुपहरि जल कर भी, ना सुकु की रोटी कामिल हो…

जब छु कर तेरे अधरो से लौटे, कई दफा जज्बातें हो…

जब वक्त मिला मुठ्ठी भर हो, पर करनी काफी कुछ बातें हो…

जब चंद्र ग्रहण अंबर का हो, और स्याह सवाली रातें हो…

जब टूट गिरी हो घर की छत, और बदरी फट बरसाते हो…

आवाज तेरी मध्म हो जब, और बज्म ये पूरा बेहरा हो…

जब टकराता इन भीडो से, तेरा आखिर इकलौता चेहरा हो…

बस साथ तेरे जुगनु जब हो, और दूर तलक बस सेहरा हो…

धुंध जरा सा गहरा हो,और किरणो पर निशा का पेहरा हो…

जब तख्त पर बैठा हो अयोग्य, और ठोकर खाता काबिल हो…

जब पांव लहू से हो लथपथ, और नजर पास ना मंजिल हो…

जब सरे आम तेरे निर्णय पर कोई प्रशन उठाता जाहिल हो…

जब तुफानो से घिरी हो नौका, और डूब रहा हर साहिल हो…

जब संयम धैर्य हवा में गुल हो, और सोच तुम्हारी बागी हो…

जब देख तमाशा जीवन का, तेरा तन मन होता बैरागी हो…

जब तेरे दिली मंसूबो से कभी खुदा ना होता राजी हो…

जब झौक चुके हो तुम सर्वस्व, और हाथ निकलती बाजी हो…

तब,तब मै चूम तुम्हारे माथे को, बाहों में जोर से भर लूंगा…

गम पिघलेगे इश्क की गर्मी में, मै कष्ट तुम्हारे हर लूंगा…

बांध मेरे इन पंखो को उस क्षितिज पार उड जाना तुम…

लेकर मेरे रंगी की शौखी, किसी इंद्रधनुष सी आना तुम…

कुछ और नही मै दे जो सकु, तुझे रोने को कांधा दुंगा…

तेरी कटती हुई पतंगे को, मै फिर उडने को मांझा दुंगा…

भूल जमाना कुछ पल को मेरे नैनो में तुम खो जाना…

ताक पर रख हर बंदिश को मेरे सीने पर तुम सो जाना…

मै थाम हथेली को तेरी, अग्निपथ सफर के चल लुंगा…

तुम छांव मेरी रख लेना, और मै तपती धूप में जल लूंगा…

मै रुह में तेरी मिल जाऊ, मेरी धडकन में तुम जी जाना…

कुबुल तेरी मै सेहर करु, मेरी शामो को तुम पी जाना…

मै रंजो गम तेरे रख लुंगा, मेरी खुशियो को तुम ले जाना…

 

जरा सी खलिश, थोडी तो कमी होनी चाहिए…

तुम्हारी निगाहें मेहबूब पर जमीं होनी चाहिए…

अभी तो जिंदा है, रुह किसी की राह तकती है,

मुर्दे का जिस्म सर्द और धडकने थमी होनी चाहिए…

बाप ने इस घर जवान बेटे को कांधा दिया है,

आंगन की मिट्टी में अब भी नमी होनी चाहिए…

जला दी जाती है दामिनि यहाँ, जिस्म नोंच कर,

इस गुनाह पर सजाये मौत लाजमी होनी चाहिए…

फकीर है हम तुम्हारी दौलत से मोह नही रखते,

सर फकत फलक नीचे दो गज जमीं होनी चाहिए…

उसके जिस्म से उलझना भी जायज है तेरा,

नीयत पाक,मोहब्बत मानिंद रुमी होनी चाहिए…

सुना है कुबुल होती है, महीने रमजान में दुआए,

फिर सजदे में, मै और इबादत मे तुम ही होनी चाहिए…

जरा सी खलिश, थोडी तो कमी होनी चाहिए…

तुम्हारी निगाहें मेहबूब पर जमीं होनी चाहिए…

 

आप शायद जिंदगी की खुशनुमा शुरुआत हो…

बरसों लबो पर थी थमी जो शायद वही तुम बात हो…

बिल्कुल ही हम अंजान है, शौखियो से इश्क के,

पर तपती धरा दे त्प्त कर तुम शायद पेहली वो बरसात हो…

आप शायद जिंदगी की खुशनुमा शुरुआत हो…

आप शायद धूप में सर पर छांव का आभास हो…

साहिल मिला हो डूबते को, कुछ ऐसा ही एहसास हो…

अब तक मेहरूम थे सपने मेरे, हकीकत के आगोश से,

पर परवाज मेरी ख्वावो को दे, आप शायद वही आकाश हो…

आप शायद जिंदगी की खुशनुमा शुरुआत हो…

खुदा से पूछा कभी जो प्रशन था, शायद तुम वो जबाब हो…

स्याह रातो का कुछ हमसफर मै, तुम रोशन आफताब हो…

जमाने में अब कहाँ पहचान होगी, अलग मेरी अलग तेरी,

परछाई तेरी मै हो चुका हुँ, और शायद तुम मेरा नकाब हो…

आप शायद जिंदगी की खुशनुमा शुरुआत हो…

जल रेशा रेशा जो मरे, वो परवाना मै,तुम चिराग हो…

ताकते चाँद को मुझ चकोर की जो ना मिटे वो आग हो…

लिखे मेरे नगमो को तो थी मिल गयी पहचान पर,

अम्त्व जिसने दे दिया, आप मीठी मेरी वो राग हो…

आप शायद जिंदगी की खुशनुमा शुरुआत हो…

मै बन कर तेरी चाहत रहुँ, तुम मेरी जज्बात हो…

तुम से ही मेरी मिलकियत हो, तुमसे मेरी औकात हो…

बस दामन अपने हो सितारे, अंधेरी ना कोई रात हो…

क्योकि शायद नही, मै जानता हुँ,

आप शायद जिंदगी की खुशनुमा शुरुआत हो….

 


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