Arun by Nidhi Narwal
जाने कौनसी सी सुबह को उसको आना हो गया…
आया भी तो कुछ ऐसे कि मेरा मिजाज भी कुछ दीवाना सा हो गया…
थोड़े ज्यादा थोड़े काम है, गम थे गम है…
पर "अरुण" हर गम को फुसलाने का बहाना हो गया….
हां था तो अनजान ही, महज एक मुसाफिर, महज एक राही…
हां थी तो पहले ही ऐसी रात, कुछ सुनी उसकी, कुछ सुनाई अपनी बात…
बहके जज्बात कुछ महके हालात, हाँ थी तो चंद मिनट की ही मुलाकात…
पर लगा जैसे उसको जाने एक जमाना हो गया…
"अरुण" मानो कोई बरसों से सुन रही प्यार का गीत पुराना हो गया…
और ये तब की बात है जब हम असलियत में फर्स्ट टाइम मिले थे…
कि मैं इंतज़ार में खड़ी थी, पहली मुलाकात की घडी थी…
बहकती साँसे, भागती धड़कने, कुछ गुनगुनाती सी नब्ज,
जो नाम उसका पढ़ रही थी, बावरी सी हो मेरे चली थी…
जब चुपके से वो आया मेरी तरफ,
बस उससे लिपट के लम्हें का थम जाना हो गया…
मानो बेघर सी धड़कनो को नसीब ठिकाना हो गया…
"अरुण" मेरे सारे लापता खवाबों का आशियाना था…
कुछ तो ख़ास था उसमें कि हर जख्म का इलाज़ था उसमें…
हाँ समंदर ही था वो और कहीं तो गहराईयों में,
मुझे अधूरे से पूरा कर दे वो दफ़न राज़ था उसमें…
फिर डूबकर उसमें शौंक से होश गंवाना हो गया…
और होश ऐसे खोना कि बेहोश खवाबों को होश आ जाए…
बस डूबना था उसमें, तैराकी से बदन बस अनजाना हो गया…
कि मालूम ना था कि जिंदगी में इस कदर रह जायेगा वो…
तन्हाइयों में भी मेरे होंठो पर मेरा ख्याल बन मुस्कुराएगा वो…
सांसो की जगह अपना एहसास रख जायेगा…
कि फिर सांसो का गुरूर यूँ टूट जायेगा…
जब से आकर के अपने रंगो से उसने रंगा है मुझे…
मैं मुझसी नहीं रही, मुझमे वो मुझसे ज्यादा है…
बड़े गुरूर में रहता है दिल, इश्क़-ऐ-फितूर में रहता है दिल…
जब से इसकी रातों को तोड़ने "अरुण" का आना हो गया…
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