Mohabbat Me Aise Nahin Chalta by Kanha Kamboj
जैसे चलाता हूँ वैसे नहीं चलता…
कैसे बताऊँ उसे यार ऐसे नहीं चलता…
खुद को मेरा साया बताता है,
फिर क्यों तू मेरे जैसे नहीं चलता…
और मुझे खिलौना समझती हो तो ये बात भी सुन लो,
अब ये खिलौना पहले जैसे नहीं चलता…
और दर्द दिमाग वार ये शायद जंग है,
मेरी जान मोहब्बत में तो ऐसे नहीं चलता…
और बस यही बातें है इस पूरी ग़ज़ल में कान्हा,
कभी ऐसे नहीं चलता कभी वैसे नहीं चलता…
जानता हूँ कि है यही हक़ीक़त पर…
भरोसा करना मुश्किल है हक़ीक़त पर…
चल ना रख हमसे कोई वास्ता यार,
तू सुन तो ले एक बार हक़ीक़त पर…
और किसी और की कहानी से नहीं होती मुकम्मल गज़लें,
मियां यहाँ लिखना पड़ता है अपनी हक़ीक़त पर…
और हर हक़ीक़त की हक़ीक़त यही है,
झूठ भारी रहा है हर हक़ीक़त पर…
और जुबां तो करती है लफ़्ज़ों से फरेब साहब,
आँखे बयां कर देती है हक़ीक़त पर…
और सब तो झूठ लिख रहे है कान्हा,
तुमने ये क्या लिख डाला हक़ीक़त पर…
पलकों ने बहुत समझाया मगर ये आँख नहीं मानी….
दिन तो हंसकर गुजारा हमने मगर ये रात नहीं मानी…
बिस्तर की सलवट दे रही थी गवाही गैर की,
हमने करवट बदल ली मगर ये बात नहीं मानी…
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