Kanha Ye Tumne Kya Likh Diya Haqeekat Par by Kanha Kamboj

Kanha Ye Tumne Kya Likh Diya Haqeekat Par by Kanha Kamboj


Kanha Ye Tumne Kya Likh Diya Haqeekat Par by Kanha Kamboj

 

जानता हूँ यही है हकीकत पर

भरोसा करना मुश्किल है हकीकत पर

चल ना रख हमसे कोई वास्ता यार,

तू सुन तो ले एक बार हकीकत पर

हर हकीकत की हकीकत यही है,

झूठ भारी रहा है हर हकीकत पर

और किसी और की कहानी से नहीं होती मुकम्मल गज़लें,

मियां यहाँ लिखना पड़ता है अपनी हकीकत पर

जुबां तो करती है लफ़्ज़ों से फरेब साहब,

आंखे बयाँ कर देती है हकीकत पर

और सब तो झूठ लिख रहे है कान्हा,

तुमने ये क्या लिख डाला हकीकत पर

 

ऐसे खेल के दांव आते है सामने

करके जब ऐब--आब आते है सामने

आपका आपसे चुराना है चैन,

देखो कितने नक़ाब आते है सामने

और इस सर्द रात करो वस्ल की बातें हमसे,

देखो कितने रंगीन मिजाज आते है सामने

हमारे सीने पर रखो सर अपना,

फिर देखो कितने हसीं खवाब आते है सामने

और कुर्बत में तो बेमोल रही यारी अपनी,

दूर होकर तो यार हिसाब आते है सामने

और हसीनाओ की नजरों से मोहब्बत करता है कान्हा,

चेहरों पर तो हिज़ाब आते है सामने

 

अपनी हकीकत में ये एक कहानी करनी पड़ी

उसके जैसी ही मुझे अपनी जुबानी करनी पड़ी

कर तो सकता था बातें इधर उधर की बहुत,

मगर कुछ लोगों में बातें हमें खानदानी करनी पड़ी

अपनी आँखों से देखा था मंजर बेवफाई का,

गैर से सुना तो फिजूल हैरानी करनी पड़ी

और मेरे ज़हन से निकला ही नहीं वो शख्स,

नए महबूब से भी बातें पुरानी करनी पड़ी

पहले उससे मोहब्बत रूह तलक की मैंने,

फिर हरकतें मुझे अपने जिस्मानी करनी पड़ी

एक छाप रह गई थी उसकी मेरे जिस्म पर,

अकेले में मिली तो वापिस निशानी करनी पड़ी

हाथ में ताश की गड्डी ले कान्हा को जोकर समझती रही,

फिर पत्ते बदल हमें बेईमानी करनी पड़ी

गैर से हंसकर बात कर खूब जलाया हमको,

हमें भी फिर किसी का हाथ थाम शैतानी करनी पड़ी

 

पलकों ने बहुत समझाया मगर ये आँख नहीं मानी

दिन तो हंसकर गुजारा हमने मगर ये रात नहीं मानी

बिस्तर की सिलवटें दे रही थी गवाही गैर की,

हमने करवट बदल ली मगर ये बात नहीं मानी

 



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