Zindagi By Nidhi Narwal
दिल के मसले, जिद्दी जज्बात…
पुरे झगडे और अधूरी बात…
आंखे सपने, जागी सी रात…
सलामत यादें और बिगड़ें हालात…
इनका हल करना है…
पर अभी अभी मालूम हुआ है कि कल मरना है…
कल मरना है…
कोई बता दे अब मैं क्या करूँ…
जी लूँ एक दिन बेफिक्री में, या मौत से मैं डरूँ…
जाने किस घडी वो मिल जाएगी…
मिलते ही मुझको निगल जाएगी…
मैं बाहें कितनी फैलाये रखूं,
जब वो बाहें फैलाये नजर आएँगी…
अब मैं संभलना चाहती हूँ…
बिन रुके मैं चलना चाहती हूँ…
जो झड़ने को है एक बंद कली,
वो कह रही मैं खिलना चाहती हूँ…
अच्छा फिलहाल क्या ऐसा हो सकता है…
कि मुझे किसी तरह से पता लग पाए,
कि मेरे पास आखिर कितना वक़्त बचा है…
तो मैं वक़्त को जरा बाँट लुंगी…
महज मशर्रत मुसीबतों के ढेर से मैं ढूंढ लुंगी, मैं छांट लुंगी…
मुलाकातें नहीं तो बातें सही…
आज रुक जाते है ना चलो जाते नहीं…
हाँ माना, कि बहस में शय और मात बची है…
पर मेरे पास फकत ये रात बची है…
मैं गिन रही हूँ अब कि कितनी सांसे आती है…
मैं सोच रही हूँ कितनी सांसे बाकी है…
शायद ज्यादा नहीं, या सच कहूँ तो पता नहीं…
ज़िन्दगी एक गणित नहीं है…
कहाँ शुरू है, कहाँ ख़तम है….
कहाँ ये ज्यादा, कहाँ ये कम है…
ये कहीं पर लिखित नहीं है…
लेकिन सुन, सुन खुदा पाताल या ऐ हवा,
मुझे जिसमें भी मिलने आना है…
सुन तू बस मेरी मोहब्बत को, फ़र्ज़ को जरा सब्र देना…
मेरी लाश पे चढ़ी टूटे फूलों की कलियों को जरा असर देना…
कफ़न को मेरे अश्क़ों के बोझ से, दरख्वास्त है मत भर देना…
और जहाँ दफ़न होकर भी वो आज़ाद रहे,
मेरी रूह को ऐसी कब्र देना…
Comments
Post a Comment
Thank You for Your Comment