Ye Ladki Mujhe Samajhdaar Nahi Lagti by Kanha Kamboj

Ye Ladki Mujhe Samajhdaar Nahi Lagti by Kanha Kamboj


Ye Ladki Mujhe Samajhdaar Nahi Lagti by Kanha Kamboj

 

अपनी हकीकत में ये एक कहानी करनी पड़ी…

उसके जैसी ही मुझे अपनी जुबानी करनी पड़ी…

कर तो सकता था बातें इधर उधर की बहुत,

मगर कुछ लोगों में बातें हमें खानदानी करनी पड़ी…

अपनी आँखों से देखा था मंजर बेवफाई का,

गैर से सुना तो फिजूल हैरानी करनी पड़ी…

और मेरे ज़हन से निकला ही नहीं वो शख्स,

नए महबूब से भी बातें पुरानी करनी पड़ी…

पहले उससे मोहब्बत रूह तलक की मैंने,

फिर हरकतें मुझे अपने जिस्मानी करनी पड़ी…

एक छाप रह गई थी उसकी मेरे जिस्म पर,

अकेले में मिली तो वापिस निशानी करनी पड़ी…

हाथ में ताश की गड्डी ले कान्हा को जोकर समझती रही,

फिर पत्ते बदल हमें बेईमानी करनी पड़ी…

गैर से हंसकर बात कर खूब जलाया हमको,

हमें भी फिर किसी का हाथ थाम शैतानी करनी पड़ी…

 

तू जरूरी है हर जरूरत को आजमाने के बाद

तू चलाना मर्जी अपनी मेरे मर जाने के बाद

है सितम ये भी कि हम उसे चाहते हैं,

वो भी इतना सितम ढाने के बाद

मुझसे मिलने आओगी ये वादा करो,

मुलाकात रकीब से हो जाने के बाद…

हो इजाजत तो तुझे छूकर देखूं,

सुना है मरते नहीं तुझे हाथ लगाने के बाद

वो रास्ते में मिली तो मुस्कुरा दिया देखकर,

बहुत रोया मगर घर जाने के बाद

है तौहीन मेरी जो तुम कर रही हो,

आवाज उठाई नहीं जाती सर झुकाने के बाद

कितनी पागल है मुझे मेरे नाम से पुकार लिया,

मुझे पहचानने से मुकर जाने के बाद

मुझसे मिलने आओगी ये वादा करो,

मुलाकात रकीब से हो जाने के बाद

वैसे हो बड़े बदतमीज तुम कान्हा,

किसी ने कहा अपनी हद से गुजर जाने के बाद

 

मेरी नजर उससे हटने पे जो उठी,

वो नजर याद है…

पुरे बगीचे की खूबसूरती मेरे जहन में नहीं

जिस छाँव में बैठ उसे निहार रहा था,

वो शजर याद है…

और ऐसी याददाश्त का तुम क्या करोगे कान्हा,

खुद पर लिखे दो शेर याद नहीं,

उस पर लिखी पूरी ग़ज़ल याद है…

 

मेरे गमो में मेरी हिस्सेदार नहीं लगती…

ये लड़की मेरी कहानी का किरदार नहीं लगती…

उसकी फ़िक्र करूँ तो हुकूमत बताती है,

यार ये लड़की मुझे समझदार नहीं लगती…

और है जानना क्या बताती है अपने घर मुझे,

मगर मेरे घर से उसके घर की दीवार नहीं लगती…,

और मैं हकीकत जानता हूँ फिर भी छुपाती है बातें,

मुँह पर झूठ बोलती है यार ईमानदार नहीं लगती…

और मुझे पकड़ लेती है खटिया उससे हिज्र की बात सुनकर,

यार वो मुझसे जुदा होकर भी बीमार नहीं लगती…

और मुझे झुकना पड़ता है उसकी गलती के आगे,

गुनाह इतनी चालाकी से करती है गुनेहगार नहीं लगती…

और फिजूल ही पढ़ रहे हो उसके हक़ में कलाम कान्हा,

तुम्हारी इन दुआओ की वो ज़रा भी हक़दार नहीं लगती…

 

 


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