Mai Qaid Hu Apne Ek Ek Khayal Mein by Nidhi Narwal

Mai Qaid Hu Apne Ek Ek Khayal Mein by Nidhi Narwal


Mai Qaid Hu Apne Ek Ek Khayal Mein by Nidhi Narwal

 

कोई हवाओं से चुराया हुआ…

कोई किताबों से उठाया हुआ…

जाने कितने लाख ख्यालों का एक तूफान,

हर वक़्त हर घडी रहता है मुझमे समाया हुआ…

चलते, फिरते, उठते, बैठते, जहाँ के एक लावारिश कोने से आया,

भटका सा एक ख्याल…

कभी पलकों के किनारो से होकर तो कभी कल्प की दरारों से होकर,

मनो मेरी रूह तक जाकर खतम अपना सफर करता है…

फिर काटकर खुद पंख अपने, वो क़ैद होकर मुझमे ही बसर करता है…

मेरा एक एक ख्याल कैद है मुझमे…

एक रोज जब दिन ढलते, जब चाहरदीवारी के अंदर पहुंची…

हाँ माफ़ करना आजकल मैं उसे घर नहीं कहती…

एक तनहा सी कुर्सी पर अपना बेकस बदन रखा,

और खुद को महसूस करने के एक आजमाइश में नाकाम रही,

तो गौर करा और खुद को रूह से लेकर जिस्म तक,

बिना किसी जंजीर से जकड़ा हुआ पाया…

तो ख्याल आया कि ये एक कमरा है,

जहाँ चारों तरफ अँधेरा है…

इसके दीवार और दर सब मैले है…

यहाँ मैं कैद हूँ किसी को दिखाई देता नहीं…

आवाजें लगाती हूँ मगर किसी को सुनाई देता नहीं…

जमीं पर कुछ कांच के टुकड़े है,

शायद कोई कांच का सामान टुटा होगा…

मेरी आज़ादी की उस लड़ाई में मेरे पैरों की खाल भी कुरेदी गयी थी,

मेरा लहू भी उस जगह छूटा होगा…

अब आफत क्या है क्या बताऊँ…

अब ऐसे किसे कैसे समझाऊँ…

चलो दरअसल बात ये है कि चाबी का पता पता नहीं…

बल्कि कमरे पर ताला ही कोई लगा नहीं…

बल्कि कमरे पर सांकल ही नहीं है…

खुले कमरे में कैद हूँ आफत तो बस यही है…

 

कहता है मुझसे मेरा एक एक ख्याल बस यही,

कि तुम कैद हो मैं नहीं…

मैं कैद हूँ मेरे एक एक ख्याल में…




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