Uske Ghar Gulab Phenk Aaya Poem by Kanha Kamboj
कि अब बस तुझे भूलने के लिए याद करता हूं,
कुछ हद तक अपनी आदतों से सुधर रहा हूं मैं…
जानता हूं तूने बदल लिया है शहर अपना,
फिर भी तेरी गली से गुजर रहा हूं मैं…
तू खिड़की पे नहीं फिर भी गुलाब फेंक आया,
ये किस बेशर्मी पे उतर रहा हूं मैं…
एक उम्र कटी है रहीसी में साथ तेरे,
बिन तेरे जिंदगी मुफलिसी में बसर कर रहा हूं मैं…
मिल गया है महबूब हूबहू तेरे जैसा,
लबों से लगाकर जहर उसका, तेरे जहर को बेअसर कर रहा हूं मैं…
मेरी नजर से देख किस नजर से देखता था,
नजरें अपनी तुझे नज़्र कर रहा हूं मैं…
जो आस्तीन में खंजर है उतार देना मेरे सीने में,
तुझे बेवफा कहके गलती कोई अगर कर रहा हूं मैं…
अब क्यों हैरानी रखती हो मेरे लहजे में,
मोहतरमा तुम्हारी ही तो नकल कर रहा हूं मैं…
अपने किरदार को पहचान मेरे लफ्जों में,
अब अपनी कहानी को ग़ज़ल कर रहा हूं मैं…
मेरी नजर उससे हटने पर जो उठी वो नजर याद है…
पूरे बगीचे की खूबसूरती मेरे जहन में नहीं,
जिस छांव में बैठ उसे निहार रहा था वो शजर याद है…
और ऐसी याददाश्त का तुम क्या करोगे 'कान्हा'
खुद पर लिखे दो शेर याद नहीं, उस पर लिखी पूरी ग़ज़ल याद है…
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