Tere Ishq Mein Kar Diya Khud Ko Badnaam Itna by Kanha Kamboj
जैसे चलाता हूं वैसे नहीं चलता…
कैसे बताऊं उसे यार ऐसे नहीं चलता…
खुदको मेरा साया बताता है,
फिर क्यों तू मेरे जैसे नहीं चलता…
तेरे इश्क में हूं बेबस इतना मैं,
जवान बेटे पर बाप का हाथ जैसे नहीं चलता…
मुझे खिलौना समझती हो तो ये बात भी सुन लो,
अब ये खिलौना पहले जैसे नहीं चलता…
दर्द, दिमाग, वार, ये शायद जंग है,
मेरी जान मोहब्बत में तो ऐसे नहीं चलता…
बस यही बातें हैं इस पूरी गजल में कान्हा,
कभी ऐसे नहीं चलता कभी वैसे नहीं चलता।
खिलते हुए फूलों के रंग चुराने हैं…
मुझे ये मौसम तेरे संग चुराने है…
तेरी जैसी मूरत एक और बनानी है,
मुझे तेरे सभी अंग चुराने है…
तेरे आँखों की नमी ही चुरा लेनी है मैंने,
तेरे आँसू तुझे करके तुम्हे तंग चुराने है।
जंगल से एक शजर काट रहा हूं मैं…
यानि किसी का घर काट रहा हूं मैं…
आइने में दर्ज करता रहा हरकतें अपनी,
ये रात खुद से मिलकर काट रहा हूं मैं…
मेरा चेहरा बता रहा था गुमानियत मेरी,
किसी बहरे ने कहा बात काट रहा हूं मैं…
मेरा लालच खा गया कमाई सारी,
उगने से पहले ही जो फसल काट रहा हूं मैं…
जब से पता लगा तुम्हारे ख्वाब किसी और को भी आते हैं,
तब से रात जैसे तैसे काट रहा हूं मैं…
अपनी पहचान थोड़ी पर्दे में रखो कान्हा,
लिखकर ये पूरी गजल काट रहा हूं मैं।
मेरे लहजे से दब गयी वो बात…
तेरे हक़ में कही थी मैंने जो बात…
तेरी एक नहीं से खामोश हो गया मैं,
कहने को तो मुझपर थी सौ बात…
और तू सोच की बस तुझसे कही है,
मैंने किसी से नहीं कही जो बात…
और तू किसी से कर मुझे ऐतराज़ नहीं,
ताल्लुक गर मुझसे रखती हो वो बात…
बात मुझे मत बता क्या बात रही है…
रह साथ उसके, साथ जिसके रात रही है…
जरा सी भी ना हिचकिचाई होते हुए बेआबरू,
बता और तेरे जिस्म से कितनो की मुलाकात रही है…
और वस्ल के किस्से बस एक खवाब बनकर रह गए,
मेरे हाथ में तेरी यादों की हवालात रही है…
गैर के साथ भीगती रही रातभर,
बड़ी बेबस वो बरसात रही है…
और वक़्त के चलते हो जायेगा सब ठीक,
अंत भला क्या होगा बुरी जिसकी इतनी शुरुआत रही है…
और बदन के निशां बताये गए जख्म पुराने,
मोहतरमा कहाँ इतनी कमजोर मेरी याददाश्त रही है…
और गलती मेरी ये रही कि तुझे सर पर बैठा लिया,
वरना कदमो लायक भी कहाँ तेरी औकात रही है…
और तेरे इश्क़ में कर लिए खुद को बदनाम इतना,
जरा पूछ दुनिया से कैसी कान्हा की हयात रही है…
सब कुछ बताया जाए तो अच्छा रहेगा…
अब कुछ न छुपाया जाए तो अच्छा रहेगा…
और अदालत सजी है तेरे मोह्हल्ले में तो कोई गिला नहीं,
गवाह मेरे मोहल्ले से भी बुलाये जाए तो अच्छा रहेगा…
और मुझमे तोहमते लगी है तेरे मोहल्ले से गुजरने की
रास्ता बाजार जाने का तेरा भी बताया जाए तो अच्छा रहेगा…
वो अपने बदन पे अँगुलियों निशां दिखा कार्यवाही की उम्मीद कर रही है,
दाग गर्दन के मेरे भी दिखाए जाये तो अच्छा रहेगा…
और साहब वो मेरे घर से निकल किसी और के घर भी जाती देखी है,
निशां उंगलियों के रकीब के भी मिलाये जाए तो अच्छा रहेगा…
और वो सुना ग़ालिब के शेर रिझा रहा है मेरे महबूब को,
ग़ज़लें उसे कान्हा की सुनाई जाये तो अच्छा रहेगा…
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