Mujhe Kokh Me Hi Maar Diya By Lovely Sharma
मौत आई है मुझे कई बार, एक बार नहीं सौ बार..
कभी मारा मुझे समाज
ने तो कभी उन्ही के रिवाज़ ने..
कभी मरी हूँ मैं
दहेज़ के ज़हर से तो कभी जली उसी के कहर से..
बाप ने कभी दुनिया
दिखा के मारा तो कभी मारा माँ कि कोख में..
आड़ ली कभी मौत ने
मर्दानगी कि तो छुपी कभी चाहत कि एकतरफा चाहत में..
ज़िंदा रहकर भी मैं
मरी थी यारो जब बनी थी शिकार किसी कि हवस की..
जलाया गया था कभी
मुझे सती बनाकर,
तो मौत गई मुझे कभी
निर्भया बनाकर..
मरी उस पल भी थी जब
हर लिया था चीर मेरा..
और मरी उस पल भी जब
बिक गया शरीर मेरा..
ना देखी मेरी उम्र
उन्होंने, ना देखा कोई मंदिर
मूरत..
कौन कहता है राख
सिर्फ इंसान होता है..
मैंने तो ख्वाबो को
भी मिटते हुए देखा है..
जिन आँखों में ख्वाब
सजाये थे उनसे अश्कों को बहते देखा है..
सपने जले मिट्टी बने, वो राख हुए, वो खाक हुए..
बंद आँखों में जवाब
ढूंढने लगी खामोश रह गई..
नहीं समझ आता क्या
हुआ?
मौत आई मेरी पहचान
को भी,
मौत आई मेरी मुस्कान
को भी और मौत आई मेरी उड़ान को भी..
मौत आती रही मैं
मरती रही, वो मारती रही और मैं
सेहती रही..
पूछ लिया एक बार
मैंने मौत से की हर बार मरती मैं ही क्यों हूँ?
वो भी कह गई
मुस्कुरा के बेटी है तू, बेटी है तू, बेटी है तू...
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