Zindagi Sunn by Nidhi Narwal
चली जा रही हो चली जा रही हो
रुको तो सही?
कबसे सदाऐं दे रही हूँ
कुछ सुनो तो सही?
मैं कितने ख़त भिजवा चुकी
कितनी कोशिशें करी मैंने
दीवार के जैसी ठहरकर मेरी
हर ख़िश्त में ढूंढा तुमको कहाँ गयी है,
कब आएगी मैनें जाकर पूछा सबको
क्या ताल्लुक भुला दिए हैं मुझसे?
क्या मैं याद नहीं तुम्हें.. सच में?
बहाने मुंह पर रहते है
कल आओगी कहती हो
तुम आजाओगी चलो मान लिया
पर ये “कल” आए
तब तो तुम्हारा कल आज तक नहीं आया
और पता नहीं कितना वक़्त लगेगा
कितनी रातें, कितने दिन,
पता नहीं कब तक और ये इंतज़ार जगेगा
एक परिंदे को भेजा था
कि तूझसे कुछ पैगाम ही मिल जाता
मैं राह तक रही हूँ
आज तक परिंदे को भी लगता है
तेरी हवा लग गयी रुख बदला फिज़ा का मेरे शहर में
दरवाज़े खिड़की खुले रखे दिन रात मैंने
और दोपहर में कि तू आ ही जाएगी या पैगाम कोई पहुंचाएगी
एक रोज़ शाम हुई पैगाम आया शुक्र है
तेरा सलाम आया किसी सितम से कम नहीं है
ये दो लफ़्ज़ जो तूने लिखकर भेजें हैं
कम्बख़्त कि “कल आउंगी”
उससे अगली सुबह आफ़ताब ढ़लकर वापस आया
पर आज तलक भी वो रात कटी नहीं है
बहुत मसरूफ़ हो गयी हो
शायद तुम शायद यकीनन!
तुम्हें वक़्त नहीं मिलता मैं कुछ वक़्त देने घर तक आऊँ?
जिन्दगी सुन
मिल लिया कर कभी-कभी!
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