A Tribute to A Father by Nidhi Narwal
कामिल नजरें, चुस्त शरीर, चौड़े सीने,
नहीं ये सब ही काफी नहीं है…
जिस बदन ने है चुना वर्दी को,
उसने अपनी धड़कने अनसुनी करी है…
चमड़ी का रंग अब पहले जैसा रहा नहीं, सिक चुका है…
उसके तो अहज़ान भी सीने में रहा नहीं, बिक चुका है…
घर अब याद आता नहीं,
कहता है कि आदत सी हो गयी है, यही जताते चलता है वो…
मैंने देखा है,
फिर भी अपने बटुए में अपनों की फोटो छुपाये चलता है वो…
वो जज्बाती है, दिखाता नहीं है…
वर्दी सुन ना ले कहीं, बताता नहीं है…
अपना सबकुछ कुर्बान कर चुका…
वो अपनों के नाम कर चुका…
उसने उड़ान खरीद कर तो दे दी सबकों,
पर किसको पता है वो अपने पंख नीलाम कर चुका…
जाने किस किस्म का है,
कि अब भी रोज सब में अमीर खुद को बता देता है…
फिर शोहरत में अपनी वर्दी दिखा देता है…
गलत मानो या सही, इस बात का मुझमे थोड़ा गुरुर तो रहता है…
कि मैं पुकारती हूँ उस बदन को पापा कहकर वो वर्दी को अपनी माँ कहता है…
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