Kareeb To Mere Bhi Hai Tu Bas Teri Ruh Ke Main Pass Nahi by Nidhi Narwal
कि वो आकर नशीन हुआ मेरे जिस्म पर,
आँखों में एक अजब सी प्यास थी उसके…
मुझसे कहने लगा, तुम्हें चाहता हूँ…
मुझसे कहने लगा, तुम्हें चाहता हूँ…
मैं सुन रही थी बातें उसकी, वो कहने लगा,
कि मेरी शकल सूरत में कोई आब नहीं…
तुम्हारे महबूब के आरा-ऐ-इश्क़ के क्या कहने,
शायद मुझमे वो बात नहीं…
करीब तो मेरे भी है तू, सच कह रहा हूँ,
बस तेरी रूह के ही मैं पास नहीं…
मैं उसे दुनिया जहाँ से छुपाने लग जाती…
तो पागल सा होकर कहता…
कि हाँ अजीज नहीं हूँ तुम्हारा,
तो ऐतराज़ करो और दूर रखो ये निगाह तुम…
कुछ गिनती के पल बचे है मेरे पास,
बस देख लेने दो ये चेहरा बस बेपनाह तुम…
दम तोड़ ही जाऊँगा बहुत जल्द मैं,
क्यों वक़्त से पहले देती हो मरने की वजह तुम…
एकतरफा आशिक़ था मेरा, था अफ़सोस तो सीने में भी…
इसी अफ़सोस में मचलता था वो…
वो मेरे महबूब से जलता था वो…
मैंने भी नफरत तो खूब करी उससे,
पर हश्र उसका देख हर ये जिगर रूठ तो जाता था…
वो आया था खुनी आबें चश्मा आँखों में लिए…
अपनी आखिरी साँसे हाथों में लिए…
कुछ वक़्त को मुझमे ज़िंदा रहा…
वो मेरी मोहब्बत में शर्मिंदा रहा…
बेक़द्र था, बेपरवाह था, पर जख्मी था वो भी कहीं…
बेवजह तो बेपरवाह कोई होता नहीं…
मैंने फिर भी उसका ख्याल करा…
रोज उससे सवाल करा…
कि अब कैसे हो, अब कैसे हो?
वो बड़े दिन तो खामोश रहा…
फिर एक दिन मुझे मेरे महबूब कि यादों में लिपटकर रोता देख,
मुस्कुराकर मुझसे कहने लगा,
कि तुम और तुम्हारा महबूब, कमबख्त एक जैसे है…
तुम भी तो मेरा इतना ख्याल,
मेरे वजूद को एक दिन खत्म करने के लिए ही रखती हो…
जख्मी होकर आया था वो जख्म मेरा…
अपनी मौत की रंजिश में, मेरे बदन पर दाग दे गया…
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