Silsila By RJ Vashishth
इश्क़ कि बारिश
वाली नम मिटटी कि महक में
बहक कर..
रिश्तो कि गीली
ज़मीन पर मैं यूँ
ही फिसलता
रहा..
घोर अँधेरे में
आफ़ताब बनने
कि चाह
लेकर उस मोहब्बत कि आग में
हमेशा जलता
रहा..
इश्क़ में उसकी
कई ख़ताये
नज़रअंदाज़ कर उसकी एक माफ़ी पर मैं मोम
सा पिघलता
रहा..
सब कुछ कर गया मैं
उस जिन
का अवतार
लेकर..
मैं भी उसकी
ख्वाहिश बनूँगा
कभी कि चाह में
खुद को मसलता रहा..
अब और क्या
ही तो फरमाए हम अपनी दीवानगी
को लेकर..
मैं और वक़्त
यूँ ही गुज़रते रहे..
और ये सिलसिला
बस यूँ
ही चलता
रहा..
इश्क़ कि बारिश
वाली नम मिटटी कि महक में
बहक कर..
रिश्तो कि गीली
ज़मीन पर मैं यूँ
ही फिसलता
रहा..
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