कितना वक़्त हो गया है तुम्हारी आवाज को सुने..
कितना वक़्त हो गया है उस खनक को रातों में बुने..
कितना वक़्त हो गया है उस वक़्त का इंतज़ार करते..
कितना वक़्त हो गया है जिंदगी के उस शक्त को गुजरते..
कितना वक़्त हो गया है कि तुम्हे देखा नहीं..
कितना वक़्त हो गया है कि थामी हाथ की रेखा नहीं..
कितना वक़्त हो गया है कि एक पल के लिए ही सही,
कांच के गिलास से तेरी मेरी कहानी जुड़ चुकी है..
और कितना वक़्त हो गया है कि उसी कांच के गिलास से,
चाय कि भांप कहीं उड़ चुकी है..
कितना वक़्त हो गया है कि नब्ज़ कहीं थम सी पड़ी है..
और कितना वक़्त हो गया है कि मेरे बेजान से हाथ को थाम के,
तू अब जाके खड़ी है..
कितना वक़्त हो गया है...
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