बस अब बहुत हुआ..
नहीं लिखनी कोई कविता या दोहा,
बस अब बहुत हुआ..
नहीं कहने वो कहानी वो किस्से,
नहीं बाँटने काली रातों के अनछुए हिस्से,
नहीं दिखानी वो खारी सी नजर,
और नहीं जाना फिर से उसी यादों के शहर,
नहीं खिलाने वो झड़े हुए पत्ते,
और नहीं तैराने तूफानी समंदर में पोपले फट्टे,
नहीं करनी अकेले अकेले बात,
और नहीं करनी जहमत ताकि काटनी ना पड़े काली रात,
नहीं सुनने वो हीरो और रांझो के नगमे,
और नहीं जलना मन की कभी न बुझने वाली आग में,
नहीं चाहूँ मैं वो मीत मधुर धानी,
मैं तो चाहूँ तेरी नजर की धड़कन,
जिसको पाके हो जाऊँ मैं फानी,
बस अब बहुत हुआ..
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